लोग कहते हैं
मैं खानाबदोश हूँ
ना जी ना
ना बंजारन हूँ ना आवरन हूँ
ना बेघर हूँ ना ही अजीत कौर हूँ
पक्की चहारदीवारी के साथ एक अदद घर भी है मेरा
पर लोगों की नजर में
मैं खानाबदोश हूँ
कहते हैं सब
पैरों में चक्कर है मेरे
जो
टिकती ही नहीं किसी एक डेरे
सच है या
झूठ
नहीं जानती
जानती हूँ तो बस इतना
घर में रहने की आस में
जब सुस्ता लेती हूँ पलभर
तो
घुटने लगता है दम
छिलने लगती है रूह
उखड़ने लगती हैं साँसें
और...
कदम खुद ब खुद निकल पड़ते हैं घर-बाहर
खुली साँस की आस में
तभी...
देखती हूँ
मेहरबानों की मेहरबानी
महसूसती हूँ
कदरदानों की कदरदानी
सुनती हूँ सलाहती आवाजें
झेलती हूँ तरस खाती नजरें
दरक जाता है कलेजा
उन निगाहों से
जो
मेरे पुख्ता वजूद को
भुलाकर
तलाशती हैं मुझ में बेचारगी
नफरत हो जाती है उन अनचाहे हाथों से
जो बढ़ रहे हैं मेरे सहारे के लिए
हो जाती है घिन
कभी उनसे
कभी खुद से
आने लगती है उबकाई
और...
मैं लौट आती हूँ
उसी जगह
जहाँ
घुटता था मेरा दम
छिलती थी मेरी रूह
और
उखड़ती थी मेरी साँसें
लौट आती हूँ उसी घर
फिर से घर-बाहर होने के लिए
शायद सच कहते हैं सब
मैं खानाबदोश हूँ
कि पैरों में चक्कर है मेरे
जो
टिकती ही नहीं किसी एक डेरे
सच है शायद मैं खानाबदोश हूँ
शायद नहीं, वाकई
वाकई
मैं खानाबदोश हूँ